लोक प्रशासन में हमेशा से ही सरकार अंतर्निहित हैं जबकि ‘लोक’ का वास्तविक अर्थ समुदाय अथवा लोग होता है।
सन् 1950 के दशक की शुरुआत में उपनिवेशवाद, स्वतंत्रता पश्चात् के प्रतिमानों में लोक प्रशासन का वास्तविक अर्थ न्याय, नैतिकता और निष्पक्षता के बुनियादी नियमों का प्रयोग करते हुए राजतंत्र द्वारा लोगों को सेवा उपलब्ध कराना था।
यह दूरदर्शी पंडित जवाहर लाल नेहरू का स्वप्न था जब उन्होंने फोर्ड फाउंडेशन के एक सलाहकार नामत: डीन पॉल एच, एप्पलबॉय - जिन्हें भारत सरकार द्वारा इस विषय पर परामर्श देने के लिए आमंत्रित किया गया था - द्वारा वर्ष 1953 में किए गए सर्वेक्षण की सिफारिश के आधार पर दिनांक 29 मार्च, 1954 को भारतीय लोक प्रशासन संस्थान की स्थापना की थी।
एक दशक तक संस्थान के प्रथम अध्यक्ष के रूप में प्रधानमंत्री नेहरू ने प्रशासन के दृष्टिकोण को ‘गैर- उपनिवेशवादी’ और लोकोन्मुखी बनाने पर बल दिया और इसके साथ-साथ उन्होंने भारत के लोगो की सेवा करने के लिए अनुप्रयोग अनुसंधान और शिक्षा और प्रशासकों के प्रशिक्षण के माध्यम से लोक नीति और शासन में ज्ञान के क्षेत्रों का संवर्धन करने की जिम्मेदारी भारतीय लोक प्रशासन संस्थान सौंपी।
एक तरफ नेतृत्व और प्रबंधकीय विशेषताओं का संवर्धन करना और दूसरी और सेवा उन्मुखीकरण प्रेरित विकास इस संस्थान के शिक्षा और प्रशिक्षण क्रियाकलापों के मुख्य क्षेत्र हैं। इसके संकाय सदस्य मुख्यत: प्रक्रियाओं को सरल बनाने के शोध कार्यों में लगे हुए है और लोक सेवाओं की उन्नत सुपुर्दगी सुनिश्चित करने के लिए नीतिगत परिवर्तनों संबंधी सुझाव देते हैं।
मीडिया की बढ़ती चकाचौंध के तहत जैसे-जैसे भारत विश्वविख्यात हो रहा है, तो उसे अपने प्रशासन और शासन को भी बदलते समय के साथ बदलना होगा और समाज की बढ़ती अपेक्षाओं पर खरा उतरना होगा, जहां पर युवाओं की जनसांख्यिकीय बहुलता, शहरी और ग्रामीण भारत का बढ़ता संघर्ष, विकास- धारणीयता संघर्ष और गरीबी से जुड़ी कुपोषण की सतत समस्याएं जैसी चुनौतियां का सामना करना होगा जिसके लिए प्रशासन और सुपुर्दगी में लचीलेपन की अत्यंत आवश्यकता है।
एक अधिनियम उपभोक्ताओं के हितों की बेहतर सुरक्षा के लिए प्रदान करने के लिए और उस उद्देश्य के लिए प्रावधान बनाने के लिए....
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